Sunday, October 17, 2010

एक यात्रा ----४
यह यात्रा --मन का मंथन है ,प्रश्न उठते हैं ,उनके उत्तर ढूद्ती हूँ --गुरु सानिध्य में ,उनकी पुस्तकें ही उनका सानिध्य। प्रश्न उठा ----
यह जीवन है क्या ?
इसका पृथ्वी पर होना ,रहना ,कुछ करना
और फिर मिट जाना ,आखिर किस लिए
जीवन को जीने का कोई लक्ष्य तो होगा ।
तुम और मैं --हैं कौन ?
कहाँ से आये और क्यूँ आये --?
मिटटी से आये --मिटटी में मिल जाने को ?
क्या जीवन मृत्यु तक की निरर्थक यात्रा ?
जीवन को पाने का कोई अर्थ तो होगा --
मिटटी से आकर मिटटी में मिलता कौन --
वह तो यह नश्वर काया ।
फिर वह क्या जो मिट ता नहीं
शाश्वत है ---शरीर मरता है ,वह मरता नहीं ।
इस शाश्वत सत्य को खोजना तो होगा ।

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