Tuesday, October 26, 2010

एक यात्रा ----5


मगर
गुरुदेव इस त्राहि त्राहि करते जगत में परम शांति कहाँ ,आनंद कहाँ ------?
यह सच है कि बाहरी जगत का प्रभाव घना ,
पर इसका अर्थ क्या ?
बहार की यह दुनिया ,जैसा चाहे ,वैसा हमें नचाये
जब चाहे रुला दे या फिर चाहे तो हंसा दे
हम क्या वातावरण की
प्रतिक्रिया मात्र बन कर रह जाएँ ?
हमारा अपना भी तो ,एक व्यक्तित्व है ,अस्तित्व भी ।
जन्म से लेकर आये हैं ,एक स्वभाव ,एक सामर्थ्य
जो इस बाहरी शत्रु से लड़ सकता है ।
वातावरण से हो पूर्णतः अप्रभावित
बना इसे अपना दास ,जो चाहे जैसा चाहे ,
अपने मन की कर सकता है ।
प्रकृति का एक रहस्य जान लो ,
हमारा मूल स्वभाव दिव्य है ।
यह अंतर्मुखी मन -सतचित आनंद आत्मन है ।
सत्य की यह पहचान कठिन ,मगर सरल भी ,
क्यूँ कि यह हमारी मूल सहज अवस्था है ।
जन्म से ही -अशुद्ध धारना के आवरण में आ जाते ,
इस से मुक्त हो सकते हैं -नहीं हो पाता इसका ज्ञान भी ।
पर यह कठिन नहीं -समय लग सकता है ,लगता रहे ,
एक बार सही सोचने की आदत ,
और गलत को नकारने का प्रयत्न शुरू हुआ
कि मुक्त होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है ।
यह विषय वातावरण का नहीं ,
शहर के लोगों ,और घटनायों का नहीं
वह तुम्हें कितना प्रभावित करें
यह समस्या ,यह विषय तुम्हारा निजी है
कि तुम्हें उनसे प्रभावित होना है कि नहीं ।
जिस मात्र में तुम उन्हें महत्त्व दोगे ,
उतनी ही मात्रा तुम्हें विक्षिप्त अथवा प्रसन्न करेगी ।
मन को अंतर्मुखी करो
शीघ्र ही बाहर की अवस्थाएं शक्ति हीन होंगी
वातावरण ,घटनाएँ या वस्तुएं
जीवन का एक लम्बा सपना --चिर परिवर्तनशील
इन को महत्त्व देना एक भूल --
इनसे निर्देशित होना एक दुर्बलता ।
सबल हो ,निर्देश दो ,इनको
फिर शांत स्थिर अवस्था पा जायोगे
और पूर्ण आनंद भी ॥

1 comment:

  1. ek ek shabd ne mujhme shakti ka sanchaar kiya hai ......nihsandeh aap ek gahan anubhaw se guzri hain , mere anubhawon me ek aur sashakt viraam !

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