Wednesday, December 16, 2009

देर न करो

मैं रात भर दिए जलाती रही
जब तुम आयो
तो अँधेरा न हो आँगन में ।

पंखुडियां गुलाब की बिछाती रही
जब तुंम आयो
सुगंध भरी हो मन पावन में ।

सितार के सुर मिलाती रही
तुम्हारा स्वागत हो
संगीत की सुमधुर तान से ।

सेज सितारों से सजाती रही
सुंदर बिछोने लगाये
कोई कमी न हो सम्मान में ।

गीत प्रीत के गुनगुनाती रही
समर्पण से भरपूर
स्नेह छलकता हो कानन में ।

मेरे सर्वस्व क्यों देर यों करी
अब आ भी जायो
पग धरो मेरे मन प्रांगन में ॥

Friday, September 4, 2009

एक चिंतन

गुरु शरण में रहकर ,साधक का
हो जाए अगर मन उदास
तो जान लो साधना में हुई कमीं कहीं ।

सीधी राह पर चलते चलते
डगमगाएं पग ,गति में आए अवधान
तो समझ लो पग में चुभा कोई शूल कहीं ।

दीप जलाया मन्दिर में भक्त नें
अगर हुआ अंधेरों का एहसास
तो मान लो आराधना में हुई चूक कहीं ।

जप करते करते मन भटकता हो
किसी शोर से भरा हो पूरा आसपास
तो जान लो प्रार्थना की यह रीत नहीं ।

ध्यान में बैठा हो जब मुमुक्षु
एकाकी पण का होने लगे आभास
तो समझ लो उपासना में हुई भूल कहीं ।

बुद्धि स्वाध्याय का मनन करती हो
मन में उठते हो हजारों सवाल
तो मान लो प्रकाश होने में देर कहीं ।

कभी मन एकाएक प्रसन्न हो जाए
चारों और फूलों की महक आए ख़ास
तो पहचान लो प्रभु तेरे एकदम पास हैं यहीं ॥

Wednesday, August 26, 2009

साधना

साधक की साधना क्या है
जीवन के पथरीले रास्ते
p
आर किया तो कुछ पाया
और रुक गए तो मात खाई ।

राह के इन काटों से
घबरा जाती हूँ ,उलझ जाती हूँ
गिरती हूँ ,उठती हूँ
नहीं जानती कहाँ तक चल आई ।

थकने की इजाज़त नहीं
मगर जाने क्यूँ थक जाती हूँ
अपने आसुयों से पूछती हूँ
क्या जो पाया ,कहीं पीछे छोड़ आई

कैसे तो मान अपमान से
लाभ हानि से ऊपर उठू
कर्मों का यह सारा जाल
करूँ तो कैसें करूँ इसकी कटाई

एक ही संतोष है
संबल भी है मेरा
कीतेरी शरण में हूँ
उठा लोगे अगर मैं ख़ुद न उठ पाई ॥

Tuesday, August 4, 2009

Gurudev writes------
What you get out of this life is not through what is happening to you, but through how you choose to deal with what is happening to you. As you undergo the experience that are ordained by your own 'karmic' pattern, you are still the architect of your own fate because of your ability to act."

Saturday, August 1, 2009

gurudev said-----

"If Godward movement is present in your life ,then life is being truly lived, andyou are really alive. This is the very essence of life that makes it a real life. Otherwise,if this divine is absent, you are but passing through life as a plant or an insect passes through life. This is a skill you have to learn :knowing how to be very much involved in the outer life, yet moving without ceasing to wards this great goal which makes a real sucess of human life. How can you do it ? It is both the science of living life as it ought to be lived and the art of being active on both the inner and outer planes__the so called secular and spiritual."
एक भाव ----
लगता है
फिर चलते चलते रुक गई हूँ
यह राह में बहते निर्झर झरने
मुझे क्यूँ रोक लेते हैं
इसके पानी से धुले
चमकते चिकने पत्थर मुझे मोह लेते हैं
और मैं बैठ जाती हूँ ,
मगर मुझे रुकना नहीं
मेरी मंजिल मेरे भीतर
और यह यात्रा लम्बी
यह दुश्वार मोड़ खाते रास्ते
वह दूर दिख रही चोटियों
तक पहुंचना अवश्य है
पर मंजिल इनसे भी कहीं दूर
इस मन ,बुद्धि और चित्त से
जगत के दिख रहे सत्य से
प्रकृति के मनमोहक नर्तन से
परे ,उस अनंत को पाने
उसमें एक हो जाने की अनुभूति
एक लगन एक चाह
उसमें मिलकर
मिट जाने की पूर्णाहुति ॥

Sunday, July 26, 2009

This blog is dedicated to my Gurudev. I learnt a lot from him,from his life, and through his books, he is with us ,guiding us, loving us.blessing us. I will love to share his thoughts and wonderfull teachings with all of you, who are looking for the true meaning of life... peace and liberation, the ultimate aim of life. It is a spiritual journey---------
"Through spiritual practice you become aware of your self upon a level higher than the normal awareness.The normal consciousness of man is at the level of the mind , but when God has been gracious enough to bring you to a sudden awakening into a hitherto unknown level of yourself, there comes into you an awareness that you are not this physical and psychological entity alone. You find that you are in essence a spiritual being above and beyond time and space,above birth and death and above name and form."--Swami Chidananda ji .

Thursday, July 16, 2009

प्रीत की रीत

प्रीत की यह क्या रीत हुई ?
जब तुमसे परिचय भी न था
गु रु ज्ञान ,
प्रज्ञा बोध ,
शब्दों का अर्थ भी मालुम न था ,
तुम आए ,
जीवन में समाये ,
सहारा दिया ,
भाव जगाये ,
कृति में साकार बने आकर ॥
फिर जाने क्या भूल हुई ?
पुकारती हूँ
दिन और रात ,
सुबह और शाम
आते हो ,
पल को छिप जाते हो ,
आँगन बुहारती हूँ ,
दीप जलाती हूँ ,
रोती हूँ गीड़गिड़ाती हूँ,
आंसूं पोंछ देते हो ,
मुस्करा देते हो,
फिर छिप जाते हो कहीं जाकर ॥
ये जाने क्या बात हुई ?
स्वर कंठ में आते हैं ,
रुक जाते हैं ,
भावों से भरा मन ,
कहीं भटक गया है ,
मंजिल पर पहुँचने से पहले
ये कौन थक गया है ,
ये मैं नहीं ,
अवश्य कोई साया है ,
इस साए को मिटा दो ,
परदा उठा दो ,
मेरे भावों के सूत्र धार
मेरी साधना संपन्न करो आकर ॥

Saturday, July 11, 2009

स्वाद आंसुओं का

आंसुओं का अपना स्वाद
अनोखा ढंग होता है
साधक बन कर प्रभु की प्रीत के आंसूं
मुहं गले पर उत्तर कर अमृत सा स्वाद देते हैं
उनके रंग में चमक होती है -
मानो सारा आकाश नीचे
हमारे आस पास उतर आया हो ।
सकूँ ऐंसा
कि जी नहीं चाहता कि आंसू रुकें या आँख खुले ।
यही आंसू जब मन चोट
खाकर बहते हैं -
मानो ज़हर गले से उतर जाता है ,
चारों और भय सागर की लहरों का भर जाता है --
मानो इसमें डूब कर अस्तित्व मिट जाए
सारा जहाँ मानो थम जाए -
क्यों जन्म लिया
क्यों हम इस जग में आए ।
सीखना है ,हाँ सीखना ही होगा
हर आंसू का स्वरूप बदला जाए -
आंसू कैंसे भी हों
उन्हें प्रभु चरणों में गिरने दिया जाए
अपने आप चमक भर लेंगे
अमृत बन जायेंगे ॥

Tuesday, July 7, 2009

पूरण समर्पण

गुरु पूर्णिमा के उपलक्ष्य में --------
मैं नहीं मेरा कुछ भी नहीं ,
जो हो सो तुम हो ,जो है सो तेरा ,
मेरा यह पूर्ण समर्पण स्वीकार करो गुरुदेव ॥

इस निर्बल काया ने
यह उदेश्य महान बनाया
जैंसे इक चींटी ने
हिमालय की चोटी लक्ष्य बनाया
तुम बस जायो मेरे अंतस में ,सब सम्भव हो सकता है ।
मेरा यह निमंत्रण स्वीकार करो गुरुदेव ॥

भाषा और साहित्य का
मुझको है ज्ञान नहीं ,
सागर से विषय की
गहराई का अनुमान नहीं
बन जायो साहिल मेरी नैया के,सहज ही सफर कट सकता है ।
मेरा यह आमंत्रण स्वीकार करो गुरुदेव ॥

मुझ जैंसे ,मन के पंखों से
जब आकाश में उड़ते हैं
समय के आंधी तुफानो में
पिट ते हैं ,फंसते हैं ,
मेरी उड़ान के पंख बन जायो ,निराकार शिवलिंग में सिमट सकता है ।
मेरी साधना का स्वप्न स्वीकार करो गुरुदेव ॥
मेरा यह पूर्ण समर्पण स्वीकार करो गुरुदेव ॥

Wednesday, July 1, 2009

रूप धरो साकार

साधना की राह पर मैं भटका हुआ इक राही ,
तुम सहारा बनो मेरे मन मन्दिर में आकर ।

तेरी साधना में क्यों कांप रही ये दिशाएं ,
तुम शक्ति बनो मेरे हाथों में आकर ।

असंख्य दीपो से सजी मेरी पूजा की थाली ,
तुम दीप शिखा बन प्रकाश भरो आकर ।

टूटे सारे तार ,बिखेरे स्वर सितार के ,
तुम स्वर ल्र्हरी बन संगीत भरो आकर ।

शब्दों के बोझिल जाल में उलझी मेरी साधना ,
तुम भीने भाव भर भावार्थ बनो आकर ।

मन्दिर के द्वार पे बिखरे सारे मोत्ती माला के ,
तुम जाप हो मेरा ,सूत्र धार बनो आकर ।

विकारों से कितनी मैली पड़ गई मन की काया ,
तुम काटो इन अंधेरों को ,रूप धरो साकार बनो आकर ।

Tuesday, June 30, 2009

वरदान दो

तुम्हारे चरणों में ,एक पुष्प चढा सकूँ
महक इसमें अमित आभार की है ,
रंग प्यार का है ,
पखुडी पंखुडी इसकी श्रधा और सत्कार की है ।
वरदान दो--इस महक को हर कलि हर पुष्प में पहुँचा सकूँ ॥

तुम्हारे चरणों में ,एक दीप जला सकूँ ,
लौ इसमें ,तुम्हारे दिए ज्ञान की है ,
तेल प्रभु नाम का है ,
बाती बाती में भावना स्नेह और सम्मान की है ,
वरदान दो --दीप तुम्हारे मान का सारी दुनिया में जला सकूँ ॥

तुम्हारे चरणों में ,सदा शीश झुका सकूँ ,
हर साँस अब तेरे नाम की है ,
हर कदम प्रभु धाम का है ,
तेरी साधना ही मंजिल मेरे हर काम की है ,
वरदान दो --तुम्हारी दिखाई राह पर शेष जीवन बिता सकूँ ॥

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