Thursday, July 16, 2009

प्रीत की रीत

प्रीत की यह क्या रीत हुई ?
जब तुमसे परिचय भी न था
गु रु ज्ञान ,
प्रज्ञा बोध ,
शब्दों का अर्थ भी मालुम न था ,
तुम आए ,
जीवन में समाये ,
सहारा दिया ,
भाव जगाये ,
कृति में साकार बने आकर ॥
फिर जाने क्या भूल हुई ?
पुकारती हूँ
दिन और रात ,
सुबह और शाम
आते हो ,
पल को छिप जाते हो ,
आँगन बुहारती हूँ ,
दीप जलाती हूँ ,
रोती हूँ गीड़गिड़ाती हूँ,
आंसूं पोंछ देते हो ,
मुस्करा देते हो,
फिर छिप जाते हो कहीं जाकर ॥
ये जाने क्या बात हुई ?
स्वर कंठ में आते हैं ,
रुक जाते हैं ,
भावों से भरा मन ,
कहीं भटक गया है ,
मंजिल पर पहुँचने से पहले
ये कौन थक गया है ,
ये मैं नहीं ,
अवश्य कोई साया है ,
इस साए को मिटा दो ,
परदा उठा दो ,
मेरे भावों के सूत्र धार
मेरी साधना संपन्न करो आकर ॥

4 comments:

  1. प्रेम की सुन्दर अभिव्यक्ति............ समर्पण का भाव लिए सुन्दर रचना

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  2. जहाँ श्रद्धा से भरा पुख्ता विश्वास वहां पूर्ण और वास्तविक समर्पण. बाकि सब चाहत या स्वार्थ.

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  3. मेरे भावों के सूत्र धार
    मेरी साधना संपन्न करो आकर ॥
    sunder abhivyakti.

    Dr Jagmohan rai

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