साधक की साधना क्या है
जीवन के पथरीले रास्ते
pआर किया तो कुछ पाया
और रुक गए तो मात खाई ।
राह के इन काटों से
घबरा जाती हूँ ,उलझ जाती हूँ
गिरती हूँ ,उठती हूँ
नहीं जानती कहाँ तक चल आई ।
थकने की इजाज़त नहीं
मगर जाने क्यूँ थक जाती हूँ
अपने आसुयों से पूछती हूँ
क्या जो पाया ,कहीं पीछे छोड़ आई
कैसे तो मान अपमान से
लाभ हानि से ऊपर उठू
कर्मों का यह सारा जाल
करूँ तो कैसें करूँ इसकी कटाई
एक ही संतोष है
संबल भी है मेरा
कीतेरी शरण में हूँ
उठा लोगे अगर मैं ख़ुद न उठ पाई ॥
Wednesday, August 26, 2009
Tuesday, August 4, 2009
Gurudev writes------
What you get out of this life is not through what is happening to you, but through how you choose to deal with what is happening to you. As you undergo the experience that are ordained by your own 'karmic' pattern, you are still the architect of your own fate because of your ability to act."
What you get out of this life is not through what is happening to you, but through how you choose to deal with what is happening to you. As you undergo the experience that are ordained by your own 'karmic' pattern, you are still the architect of your own fate because of your ability to act."
Saturday, August 1, 2009
gurudev said-----
"If Godward movement is present in your life ,then life is being truly lived, andyou are really alive. This is the very essence of life that makes it a real life. Otherwise,if this divine is absent, you are but passing through life as a plant or an insect passes through life. This is a skill you have to learn :knowing how to be very much involved in the outer life, yet moving without ceasing to wards this great goal which makes a real sucess of human life. How can you do it ? It is both the science of living life as it ought to be lived and the art of being active on both the inner and outer planes__the so called secular and spiritual."
एक भाव ----
लगता है
फिर चलते चलते रुक गई हूँ
यह राह में बहते निर्झर झरने
मुझे क्यूँ रोक लेते हैं
इसके पानी से धुले
चमकते चिकने पत्थर मुझे मोह लेते हैं
और मैं बैठ जाती हूँ ,
मगर मुझे रुकना नहीं
मेरी मंजिल मेरे भीतर
और यह यात्रा लम्बी
यह दुश्वार मोड़ खाते रास्ते
वह दूर दिख रही चोटियों
तक पहुंचना अवश्य है
पर मंजिल इनसे भी कहीं दूर
इस मन ,बुद्धि और चित्त से
जगत के दिख रहे सत्य से
प्रकृति के मनमोहक नर्तन से
परे ,उस अनंत को पाने
उसमें एक हो जाने की अनुभूति
एक लगन एक चाह
उसमें मिलकर
मिट जाने की पूर्णाहुति ॥
एक भाव ----
लगता है
फिर चलते चलते रुक गई हूँ
यह राह में बहते निर्झर झरने
मुझे क्यूँ रोक लेते हैं
इसके पानी से धुले
चमकते चिकने पत्थर मुझे मोह लेते हैं
और मैं बैठ जाती हूँ ,
मगर मुझे रुकना नहीं
मेरी मंजिल मेरे भीतर
और यह यात्रा लम्बी
यह दुश्वार मोड़ खाते रास्ते
वह दूर दिख रही चोटियों
तक पहुंचना अवश्य है
पर मंजिल इनसे भी कहीं दूर
इस मन ,बुद्धि और चित्त से
जगत के दिख रहे सत्य से
प्रकृति के मनमोहक नर्तन से
परे ,उस अनंत को पाने
उसमें एक हो जाने की अनुभूति
एक लगन एक चाह
उसमें मिलकर
मिट जाने की पूर्णाहुति ॥
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